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मंगळवार, ७ जानेवारी, २०२५

जानकी देवी बजाज


            *जानकी देवी बजाज*


( एक संपन्न घराने की बहू, जिसने देश के लिए ख़ुशी-ख़ुशी त्याग दिया हर आराम!)


        *जन्म : 7 जनवरी 1893*

              (जरौरा, मध्य प्रदेश)

         *मृत्यु : 21 मई 1979*


पति : जमनालाल बजाज

नागरिकता : भारतीय

प्रसिद्धि : सामाजिक कार्यकर्ता व गाँधीवादी स्वतंत्रता सेनानी

पुरस्कार-उपाधि : पद्म विभूषण 

                           (1956)

अन्य जानकारी : भारत में पहली बार 17 जुलाई, 1928 के ऐतिहासिक दिन को जानकी देवी अपने पति और हरिजनों के साथ वर्धा के लक्ष्मीनारायण मंदिर पहुँचीं और मंदिर के दरवाजे हर किसी के लिए खोल दिए।

            जानकी देवी बजाज संस्था (फाउंडेशन ) IMC की महिला विंग – जानकीदेवी बजाज पुरस्कार उन सभी महिला उद्यमियों द्वारा किये गए कामों को प्रोत्साहित और सम्मानित करता है, जो उनके द्वारा ग्रामीण भारत में किये जा रहे हैं।

                   श्रीमती जानकी देवी बजाज गाँधीवादी जीवनशैली की कट्टर समर्थक थीं, उन्होंने कुटीर उद्योग के माध्यम से ग्रामीण विकास में काफी सहयोग किया। वह एक स्वावलंबी महिला थीं, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया। उनके व्यक्तित्व में एक विरोधाभास सा था, वह दानी भी थीं और मित्तव्ययी भी. वह कठोर भी थीं लेकिन दयालु भी।

               जानकी देवी का जन्म 7 जनवरी 1893 को मध्य प्रदेश के जरौरा में एक संपन्न वैष्णव-मारवाड़ी परिवार में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा के कुछ सालों बाद ही उनके छोटे से कंधो पर घर गृहस्थी की जिम्मेदारी डाल दी गयी। मात्र आठ साल की कच्ची उम्र में ही उनका विवाह, संपन्न बजाज घराने में कर दिया गया। विवाह के बाद उन्हें 1902 में जरौरा छोड़ अपने पति जमनालाल बजाज के साथ महाराष्ट्र वर्धा आना पड़ा।

                    जमनालाल, गाँधी से प्रभावित थें और उन्होंने उनकी सादगी को अपने जीवन में उतार लिया था। जानकी देवी भी स्वेच्छा से अपने पति के नक़्श -ए-कदम पर चलीं और त्याग के रास्ते को अपना लिया।

                           इसकी शुरुवात स्वर्णाभूषणों के दान के साथ हुई। गाँधी जी के आम जनमानस के लिए दिए गए जनसंदेश का जिक्र जमनालाल ने एक पत्र में जानकीदेवी से किया, उस वक़्त वह 24 साल की थीं। वह यह मानते थे कि सोना “कलि“ का प्रतीक है और यह ईर्ष्या और खोने के डर को जन्म देता है।

                 जानकी देवी ने स्वेच्छा से अपने सारे आभूषण त्याग दिए और मृत्युपर्यंत कोई भी स्वर्णाभूषण नहीं पहना।

                            जानकी देवी ने जमनालाल के कहने पर सामजिक वैभव और कुलीनता के प्रतीक बन चुके पर्दा प्रथा का भी त्याग कर दिया। उन्होंने सभी महिलाओं को भी इसे त्यागने के लिए प्रोत्साहित किया। साल 1919 में उनके इस कदम से प्रेरित हो कर हज़ारों महिलाएं आज़ाद महसूस कर रही थी, जो कभी घर से बाहर भी नहीं निकलीं थीं।

                   28 साल की उम्र में उन्होंने अपने सिल्क के वस्त्रों को त्याग कर खादी को अपनाया। वो अपने हाथों से सूत कातती और सैकड़ों लोगों को भी सूत कातना सिखातीं। उन्होंने स्वदेशी आंदोलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

                    जब महाराष्ट्र के वर्धा में विदेशी सामानों की होली जलायी जा रही थी, तब उन्होंने विदेशी कपड़ों के थान जलाने से पहले एक बार भी नहीं सोचा।

                    भारत में पहली बार 17 जुलाई 1928 के ऐतिहासिक दिन को जानकी देवी अपने पति और हरिजनों के साथ वर्धा के लक्ष्मीनारायण मंदिर पहुँचीं और मंदिर के दरवाजे हर किसी के लिए खोल दिए।

                 अस्पृश्यता के ख़िलाफ उनकी ये जंग लोगों के लिए एक नया सबक थी। उन्होंने अपने घर में खाना बनाने के लिए एक दलित महाराजिन को रखा और उसे खाना बनाना सिखाया।

                 उनके कदम जो बढ़े तो फिर रुके नहीं। जानकी देवी अपने छोटे-छोटे पर मजबूत क़दमों से ग्रामीण भारत के इलाकों में भी उन तमाम लोगों को जागरूक करने में लगीं हुयी थीं जो स्वतंत्र भारत के ख़्वाब देखते थे।

                      जानकीदेवी ने वर्धा में अपने घर की चार दीवारी से निकल कर गाँधी जी के जनसंदेश को हजारों लोगों के दिलों तक पहुँचाया। जब वह जन सैलाब के बीच स्वराज का भाषण दिया करतीं, तो श्रोता मंत्रमुग्ध हो उन्हें सुनते रह जाते। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में वह कई बार जेल भी गयीं। उस वक़्त उनके अंदर एक सच्ची नायिका जन्म ले चुकी थी।

                        गाँधी जी ने उनके जीवन को काफी प्रभावित किया, उन्होंने पहले गाँधी जी के दर्शन को समझा और फ़िर उनकी विचारधारा को अपने जीवन में उतारा।

                   जानकी देवी के पाँचों बच्चे भी अपनी माँ की देख-रेख में सादगीपूर्ण जीवन जीने की कला सीख रहे थे।

जानकीदेवी की प्रसिद्धि बहुत दूर तक थी। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा दिया। संत विनोबा भावे के साथ वो कूपदान, ग्रामसेवा, गौसेवा और भूदान जैसे आंदोलनों से जुड़ी रहीं।

गौसेवा के प्रति उनके जूनून के चलते वो 1942 से कई सालों तक अखिल भारतीय गौसेवा संघ की अध्यक्ष रहीं।

                        संत विनोबा भावे बजाज परिवार के आत्मिक गुरु थे। जानकी देवी की बच्चों सी निश्चलता से आचार्य विनोबा भावे इतने प्रभावित हुए कि उनके छोटे भाई ही बन गए।

                  उनके आजीवन किये गए कार्यों को सम्मानित करने के लिए भारत सरकार ने सन् 1956 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया।

                भारतीय व्यापारियों की महिला विंग ने ग्रामीण उद्यमियों के लिए सन् 1992- 93 में IMC महिला विंग जानकीदेवी पुरस्कार की स्थापना की।

           ये सब श्रीमती जानकीदेवी बजाज की जन्म शताब्दि मानाने के लिए श्रीमती किरण बजाज की अध्यक्षता में किया गया। यह वास्तव में महिला विंग के लिए एक स्वागत भाव था जब बजाज इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड ने स्वेच्छा से पुरस्कार देने की पेशकश की।

                       IMC महिला विंग जानकीदेवी बजाज पुरूस्कार की स्थापना का उद्देश्य ग्रामीण भारत से मजबूत सम्बन्ध बनाये रखना है ताकि उनके कामों को बढ़ावा और सम्मान दिया जा सके।


🎖️ *जानकी देवी बजाज पुरस्कार*

                     जानकी देवी बजाज पुरस्कार प्रतिवर्ष 'जमनालाल बजाज फाउण्डेशन', मुम्बई द्वारा दिया जाता है। इस फाउण्डेशन द्वारा प्रतिवर्ष विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार दिए जाते है। तीन राष्ट्रीय पुरस्कारों में से एक महिलाओं और बच्चों के उत्थान और कल्याण में उत्कृष्ट योगदान देने वाली महिलाओं को दिया जाता है।

                     जानकी देवी बजाज पुरस्कार पद्म विभूषण श्रीमती जानकी देवी बजाज की स्मृति में दिया जाता है, जो कि जमनालाल बजाज की पत्नी थीं।

इस पुरस्कार के तहत नगद पाँच लाख रुपये की धन राशि, ट्रॉफी एवं प्रशस्ति पत्र दिया जाता है।

फाउण्डेशन द्वारा प्रतिवर्ष पुरस्कारों के लिए आवेदन आमंत्रित किए गए है। प्रतिभागी को अपनी प्रविष्टी सीधे जमनालाल बजाज फाउण्डेशन, बजाज भवन, द्वितीय तल, जमनालाल बजाज मार्ग, 226 नरीमन प्वाइंट, मुम्बई 400021 के पते पर भेजना होता है।

                भारतीय व्यापारियों की महिला विंग ने ग्रामीण उद्यमियों के लिए सन् 1992-1993 में आईएमसी महिला विंग जानकी देवी पुरस्कार की स्थापना की थी। ये सब जानकी देवी बजाज की जन्म शताब्दि मानाने के लिए श्रीमती किरण बजाज की अध्यक्षता में किया गया था। यह वास्तव में महिला विंग के लिए एक स्वागत भाव था, जब बजाज इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड ने स्वेच्छा से पुरस्कार देने की पेशकश की। आईएमसी महिला विंग जानकी देवी बजाज पुरूस्कार की स्थापना का उद्देश्य ग्रामीण भारत से मजबूत सम्बन्ध बनाये रखना है ताकि उनके कामों को बढ़ावा और सम्मान दिया जा सके।


         

अनंत कान्हेरे

                     

               *अनंत कान्हेरे*

(भारतीय स्वातंत्र्य लढ्यातील एक सशस्त्र क्रांतिकारी)


     *जन्म : ७ जानेवारी १८९२*

     *फाशी : १९ एप्रिल १९१०*

(ठाणे, महाराष्ट्र, भारत)

चळवळ : भारतीय स्वातंत्र्यलढा

संघटना : अभिनव भारत

धर्म : हिंदू

प्रभाव : विनायक दामोदर सावरकर

वडील : लक्ष्मण कान्हेरे                     अनंत लक्ष्मण कान्हेरे  हे भारतीय स्वातंत्र्यलढ्यातील एक सशस्त्र क्रांतिकारक होते. ते गणेश दामोदर सावरकर आणि विनायक दामोदर सावरकर यांच्या पुढाकाराने स्थापन झालेल्या 'अभिनव भारत' या क्रांतिकारक संघटनेचे सदस्य होते. नाशिकचा कलेक्टर ए.एम.टी. जॅक्सन याची हत्या करणारे अनंत कान्हेरे हे खुदीराम बोस यांच्यानंतरचे सर्वांत तरुण वयाचे भारतीय क्रांतिकारक ठरले.

 👦🏻 *पूर्वाआयुष्य

अनंत कान्हेरे यांचा जन्म रत्‍नागिरी जिल्ह्याच्या खेड तालुक्यातील आयनी मेटे या गावात १८९२ मध्ये झाला. त्यांना दोन बहिणी आणि दोन भाऊ होते. त्यांचे प्राथमिक शिक्षण इंदूर येथे तर माध्यमिक शिक्षण छत्रपती संभाजीनगर येथे झाले. त्यांच्या मोठ्या भावाचे नाव गणपतराव आणि धाकट्या भावाचे नाव शंकरराव होते.


💥 *क्रांतीकार्य*

कान्हेरे १९०३ मध्ये आपल्या काकांकडे पुढील शिक्षणासाठी औरंगाबादला गेले. त्यांचे भाऊ गणपतराव बार्शी येथे राहत होते. त्यांच्याकडे काही काळ राहून १९०८ मध्ये ते पुन्हा औरंगाबादला परत गेले. तेव्हा ते गंगाराम रुपचंद श्रॉफ यांच्या घरात भाड्याने राहत असत. गंगाराम यांचा येवल्यात टोणपे नावाचा एक मित्र होता. त्या काळात अनेक गुप्त क्रांतिकारी संस्था कार्यरत होत्या. नाशिकमधील एका गुप्त संस्थेचा टोणपे हे सदस्य होते. गणू वैद्य आणि गंगाराम एकदा नाशिकमधील गुप्त क्रांतिकारी संस्थेसाठी शस्त्रे खरेदी करण्यासाठी केले होते. या वैद्यांशी कान्हेरे यांची ओळख झाली. नंतर कान्हेरे यांनी त्या दिवसातील मैत्रीबद्दल ‘मित्र प्रेम’ नावाची कादंबरी लिहिली. कान्हेरे क्रांतिकारी गटांच्या कार्याकडे आकर्षित झाले. सावरकर बंधूनी नाशिक येथे अभिनव भारत संस्थेची स्थापना केली होती. कृष्णाजी गोपाळ कर्वे यांनी बाबाराव सावरकरांच्या मार्गदर्शनाखाली अशाच एका गुप्त गटाची स्थापना केली होती. या संस्थेचे दुसरे सदस्य विनायक नारायण देशपांडे होते. सावरकर बंधू, मदनलाल धिंग्रा यांच्याकडून स्फूर्ती घेऊन अनंत कान्हेरे ह्यांनी नाशिकचा कलेक्टर जॅक्सन याला ठार मारण्याचे ठरविले. त्याला कृष्णाजी गोपाळ कर्वे आणि विनायक नारायण देशपांडे अशा समवयस्क साथीदारांची जोड मिळाली.


जॅक्सनची मुंबई येथे वरच्या पदावर बदली करण्यात आली. त्याला नाशिक येथेच मारणे जास्त सोपे होते. २१ डिसेंबर १९०९ या दिवशी नाशकातल्या विजयानंद थिएटरमध्ये 'शारदा' या नाटकाचा प्रयोग जॅक्सनच्या निरोप समारंभासाठी ठरला होता. जॅक्सन मराठी भाषेचा आणि नाटकांचा चाहता असल्याने या प्रयोगास येणार होताच. नाटकाचा प्रयोग सुरू होण्याची वेळ झाली, सर्वजण आपापल्या जागेवर स्थानापन्न होत असताना अनंत कान्हेरे ह्यांनी जॅक्सनवर पिस्तुलातून गोळ्या झाडल्या. जॅक्सन जागीच ठार झाला. अनंत कान्हेरे आपल्या जागेवरच शांतपणे उभे राहिले, त्यांना अटक करण्यात आली. कान्हेरे, कर्वे आणि देशपांडे यांच्यावर खटला भरण्यात आला. २० मार्च इ.स. १९१० रोजी तिघांनाही फाशीची शिक्षा ठोठावण्यात आली. १९ एप्रिल १९१० या दिवशी तिघांनाही ठाण्याच्या तुरुंगात फाशी देण्यात आले.


ठाण्याच्या तुरुंगात अनंत कान्हेरे यांचे स्मारक आहे. नाशिकमध्ये 'अनंत कान्हेरे' नावाचे क्रिकेटचे मैदान आहे.                                                                                               

         

सोमवार, ६ जानेवारी, २०२५

बाळशास्त्री जांभेकर

                           

        *बाळशास्त्री जांभेकर*

     (दर्पणकार... समाजसुधारक)

        

       *जन्म : ६ जानेवारी १८१२*

            (पोंभुर्ले, महाराष्ट्र)

       *मृत्यू : १८ मे १८४६*


पेशा : पत्रकारिता, साहित्य

प्रसिद्ध कामे : दर्पण

मूळ गाव : पोंभुर्ले (देवगड तालुका, सिंधुदुर्ग)

वडील : गंगाधरशास्त्री बाळशास्त्री गंगाधरशास्त्री जांभेकर हे मराठी भाषेतील आद्य पत्रकार होते. दर्पण हे मराठीतले पहिले वृत्तपत्र त्यांनी ६ जानेवारी १८३२ रोजी सुरू केले.                                                                          

💁‍♂️ *जीवन*

जांभेकरांनी बालपणी वडिलांकडे घरीच मराठी व संस्कृत भाषांचा अभ्यास आरंभला. इ.स. १८२५ साली त्यांचे मुंबईमध्ये आगमन झाले. मुंबईस येऊन ते सदाशिव काशीनाथ ऊर्फ ‘बापू छत्रे’ आणि बापूशास्त्री शुक्ल यांजकडे अनुक्रमे इंग्रजी व संस्कृत शिकू लागले. या दोन विषयांबरोबरच गणित आणि शास्त्र या विषयांत त्यांनी प्रावीण्य मिळविले. ‘बॉंबे नेटिव्ह एज्युकेशन सोसायटी’च्या विद्यालयात अभ्यास करून त्यांनी विशीच्या आत कोणाही भारतीयाला तोवर न मिळालेली प्राध्यापक म्हणून नियुक्ती मिळवण्याइतपत ज्ञान कमवले. इ.स. १८३४ साली एल्फिन्स्टन कॉलेजात पहिले एतद्देशीय व्याख्याते म्हणून जांभेकरांची नियुक्ती झाली.

बाळशास्त्रींना मराठी, संस्कृत, बंगाली, गुजराती, कानडी, तेलुगू, फारसी, फ्रेंच, लॅटिन व ग्रीक या भाषांचे ज्ञान होते. फ्रेंच भाषेतील नैपुण्याबद्दल फ्रान्सच्या राजाकडून त्यांचा सन्मान झाला होता.

जांभेकरांनी प्राचीन लिप्यांचा अभ्यास करून कोकणातील शिलालेख व ताम्रपट यांच्यावर शोधनिबंध लिहिले. मुद्रित स्वरूपातील ज्ञानेश्वरी त्यांनीच प्रथम वाचकांच्या हाती दिली.


त्यांच्यात पांडित्य आणि अध्यापनपटुत्व या गुणांचा मिलाफ होता. गणित व ज्योतिष यांतही ते पारंगत असल्यामुळे त्यांची कुलाबा वेधशाळेच्या संचालकपदी नियुक्ती झाली होती. शिवाय त्यांना रसायनशास्त्र , भूगर्भशास्त्र, प्राणिशास्त्र, वनस्पतीशास्त्र, न्यायशास्त्र, इतिहास, मानसशास्त्र या विषयांचे उत्तम ज्ञान होते. अनेक विषयांचे ज्ञान आत्मसात केलेल्या बाळशास्त्री जांभेकर यांची तत्कालीन सरकारने मुंबई इलाख्याच्या शिक्षण विभागाचे अधिकारी म्हणून नेमणूक केली. या काळामध्ये बाळशास्त्रींनी अनेक महत्त्वाचे निर्णय घेतले शिक्षणाच्या संदर्भामध्ये मोलाची भूमिका बजावली बाळशास्त्री जांभेकरांचा जन्मदिवस हा महाराष्ट्र सरकारतर्फे 'दर्पण दिन' अथवा 'वृत्तपत्र दिन' म्हणून साजरा होतो. महाराष्ट्रात शिक्षण प्रसाराचे सुरुवातीच्या अवस्थेत निरनिराळ्या विषयांवरील अभ्यासासाठी पाठ्यपुस्तके तयार करण्याचे अतिशय कठीण असे काम या काळामध्ये बाळशास्त्री जांभेकरांनी केलं इतिहास भूगोल व्याकरण गणित छंदशास्त्र नीतिशास्त्र या विविध विषयावरील मराठी भाषेतील पहिली पाठ्यपुस्तके त्यांनीच लिहिली बाळशास्त्री वांग्मय व विज्ञान या दोन्ही शाखांमध्ये निष्णात होते गणित व ज्योतिष शास्त्र या विषयातही त्यांचा अधिकार मोठा होता त्यांनी मराठी भाषेत शून्यलदी हे पहिले पुस्तक लिहिले प्राचीन भारतीय शिलालेख व ताम्रपट याचे संशोधन करून त्यावर त्यांनी विद्वत्तापूर्ण लेखन केले यासंबंधीचे त्यांचे शोधनिबंध रॉयल एशियाटिक सोसायटीच्या नियतकालिकात प्रसिद्ध झाले होते


🗞️📰 *पत्रकारिता*

मुंबईतल्या एल्फिन्स्टन कॉलेजमध्ये असताना व समाजात वावरताना बाळशास्त्रींना अनेक समस्या अस्वस्थ करीत. पारतंत्र्याने ग्रासलेला देश, याबरोबरच समाजातील अनेक रूढी, चालीरीती, अज्ञान, दारिद्ऱ्य, भाकड समजुती यामुळे एतद्देशीय समाज कसा व्याधिग्रस्त झाला आहे, या विचाराने ते चिंता करीत. केवळ महाविद्यालयात शिकवून उपयोग नाही; तर संपूर्ण समाजालाच धडे दिले पाहिजेत. ते करायचे असेल तर समाजाचेच प्रबोधन करावे लागेल, असे त्यांच्या लक्षात आले. त्यासाठी वृत्तपत्र काढावे, असे त्यांना वाटू लागले. या जाणिवेतून आपले सहयोगी गोविंद विठ्ठल कुंटे उर्फ भाऊ महाजनांच्या मदतीने त्यांनी दर्पण हे मराठीतील पहिले वृत्तपत्र काढले.


६ जानेवारी १८३२ रोजी दर्पणचा पहिला अंक प्रकाशित झाला. या वृत्तपत्रात इंग्रजी व मराठी भाषेमध्ये मजकूर असायचा. या वर्तमानपत्राचा उद्देश हा स्वदेशीय लोकांमध्ये विलायतेतील विद्यांचा अभ्यास अधिक व्हावा आणि लोकांना त्या देशांची समृद्धी व येथील लोकांचे कल्याण याविषयी स्वतंत्र विचार करता व्हावा हा होता. जनसामान्यांसाठी वृत्तपत्राची भाषा मराठी ठेवण्यात आली असली, तरी ब्रिटिश शासनापर्यंत आपला आवाज जावा या हेतूने, वृत्तपत्राचा एक स्तंभ इंग्लिश भाषेत असायचा. वृत्तपत्राची किंमत १ रुपया होती. इंग्रजी आणि मराठी अशा जोड षेत प्रकाशित होणारे या वृत्तपत्रात अंकात दोन स्तंभ असत. उभ्या मजकुरात एक स्तंभ (कॉलम) मराठीत आणि एक स्तंभ इंग्रजीत असे. मराठी मजकूर अर्थातच सर्वसामान्य जनतेसाठी होता आणि इंग्रजी मजकूर वृत्तपत्रात काय लिहिले आहे, हे राज्यकर्त्यांनाही कळावे यासाठी इंग्रजी मजकूर होता. वृत्तपत्राची संकल्पना त्या काळी लोकांना नवीन होती. त्यामुळे दर्पणचे वर्गणीदार सुरुवातीच्या काळात खूप कमी होते. पण हळूहळू लोकांमध्ये ही संकल्पना जशी रुजली, तसे त्यातील विचारही रुजले आणि प्रतिसाद वाढत गेला. दर्पणवर प्रथमपासूनच बाळशास्त्री जांभेकरांच्या विचारांचा आणि व्यक्तिमत्त्वाचा ठसा होता. दर्पण अशा रीतीने साडे आठ वर्षे चालले आणि जुलै, इ.स. १८४० ला त्याचा शेवटचा अंक प्रकाशित झाला.


दर्पण वृत्तपत्रासोबत मराठीतले पहिले मासिक 'दिग्दर्शन' त्यांनी इ.स. १८४० साली सुरू केले. 'दिग्दर्शन' मधून ते भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, व्याकरण, गणित तसेच भूगोल व इतिहासावर लेख प्रकाशित करत. भाऊ दाजी लाड, दादाभाई नौरोजी हे त्यांचे विद्यार्थी त्यांना या कामी मदत करत. या मासिकाचे संपादक म्हणून त्यांनी ५ वर्षे काम पाहिले. या मासिकातून त्यांनी भूगोल, इतिहास, रसायन शास्त्र, पदार्थ विज्ञान, निसर्ग विज्ञान आदी विषयांवर्चे लेखन नकाशे व आकृत्यांच्या साहाय्याने प्रसिद्ध केले. या अभिनव माध्यमातून त्यांनी लोकांची आकलनक्षमता वाढवण्याचा प्रयत्‍न केला.


🔮 *समाजकार्य*

सार्वजनिक गंथालयांचे महत्त्व ओळखून 'बॉंबे नेटिव्ह जनरल लायब्ररी' या ग्रंथालयाची स्थापना जांभेकरांनी केली. 'एशियाटिक सोसायटी'च्या त्रैमासिकात शोधनिबंध लिहिणारे ते पहिले भारतीय होते. ज्ञानेश्वरीची पहिली मुद्रित आवृत्ती त्यांनी इ.स. १८४५ साली काढली. मुंबईच्या एल्फिन्स्टन महाविद्यालयात ते हिंदुस्तानी भाषेचे अध्यापन करत. त्यांच्या प्रकाशित साहित्यकृतींमध्ये 'नीतिकथा', 'इंग्लंड देशाची बखर', 'इंग्रजी व्याकरणाचा संक्षेप', 'हिंदुस्थानचा इतिहास', 'शून्यलब्धिगणित' या ग्रंथांचा समावेश आहे. ‘दर्पण’ हे बाळशास्त्रींच्या हातातील एक लोकशिक्षणाचे माध्यम होते. त्यांनी त्याचा उत्तम वापर प्रबोधनासाठी करून घेतला. यात विशेष उल्लेख त्यांनी हाताळलेल्या विधवांच्या पुनर्विवाहाच्या प्रश्र्नाचा व वैज्ञानिक दृष्टिकोनाच्या प्रसाराचा करावा लागेल. बाळशास्त्रींनी या विषयांवर विपुल लिखाण केले. त्यामुळे त्यावर विचारमंथन होऊन त्याचे रूपांतर पुढे विधवा पुनर्विवाहाच्या चळवळीत झाले. ज्ञान, बौद्धिक विकास आणि विद्याभ्यास या गोष्टी त्यांना महत्त्वाच्या वाटत. उपयोजित ज्ञानाचा प्रसार समाजात व्हावा, ही त्यांची तळमळ होती. देशाची प्रगती, आधुनिक विचार आणि संस्कृतीचा विकास यासाठी वैज्ञानिक ज्ञानाची गरज आहे, तसेच सामाजिक प्रश्नांकडे पाहण्याच्या विवेकनिष्ठ भूमिकेसाठी शास्त्रीय ज्ञानाच्या प्रसाराची आवश्यकता आहे, याची जाणीव त्यांना झाली होती. विज्ञाननिष्ठ मानव उभा करणे हे त्यांचे स्वप्न होते. थोडक्यात, आजच्यासारखा ज्ञानाधिष्ठित समाज त्यांना दोनशे वर्षांपूर्वीच अपेक्षित होता. त्या अर्थाने ते द्रष्टे समाजसुधारक होते. विविध समस्यांवर सकस चर्चा घडवण्यासाठी बाळशास्त्रींनी ‘नेटिव्ह इंप्रुव्हमेंट सोसायटी’ची स्थापना केली. यातूनच पुढे ‘स्ट्युडंट्स लिटररी ॲन्ड सायंटिफिक सोसायटी’ या संस्थेला प्रेरणा मिळाली व दादाभाई नौरोजी, भाऊ दाजी लाड यांसारखे दिग्गज कार्यरत झाले. सामाजिक व धार्मिक सुधारणांच्या बाबतीत बाळशास्त्री यांची वृत्ती ही पुरोगामी विचारांची राहिलेली आहे भारतीय समाजातील व हिंदू धर्मातील अनिष्ट प्रथा बंद पडाव्यात किमान त्यांना आळा बसावा अशी त्यांची भूमिका होती त्यामुळे विधवा पुनर्विवाह स्त्री-शिक्षण यांचा त्यांनी पुरस्कार केला. विधवा विवाहासाठीचा शास्त्रीय आधार शोधून काढण्याची कामगिरी त्यांनी केली. त्यासाठी गंगाधरशास्त्री फडके यांच्याकडून त्यांनी त्याविषयीचा एक ग्रंथ लिहून घेतला. अशा प्रकारे जांभेकरांनी जीवनवादाचा, सुधारणावादाचा किंवा परंपरानिष्ठ परिवर्तन वादाचा पाया घातला.


त्यांचे विचार प्रगमनशील होते. ख्रिस्त्याच्या घरात राहिल्यामुळे वाळीत टाकल्या गेलेल्या एका हिंदू मुलास त्यांनी तत्कालीन सनातन्यांच्या विरोधास न जुमानता शुद्ध करून पुन्हा हिंदू धर्मात घेण्याची व्यवस्था केली.


बाळशास्त्रींनी साधारणपणे इ.स. १८३० ते १८४६ या काळात आपले योगदान महाराष्ट्राला व भारताला दिले. बाळशास्त्रींचे अल्पावधीच्या आजारानंतर मुंबईत निधन झाले.


📜 *सन्मान*

‘बॉंबे नेटिव्ह एज्युकेशन सोसायटी’चे ‘नेटिव्ह सेक्रेटरी’, अक्कलकोटच्या युवराजाचे शिक्षक, एल्‌फिन्स्टन इन्स्टिट्यूटमध्ये पहिले असिस्टंट प्रोफसर, शाळा तपासनीस, अध्यापनशाळेचे (नॉर्मल स्कूल) संचालक अशा अनेक मानाच्या जागांवर त्यांनी काम केले. त्यांना ‘जस्टिस ऑफ पीस’ ही करण्यात आले होते (१८४०).


६ जानेवारी, इ.स. १८३२ रोजी दर्पण वृत्तपत्राच्या पहिला अंक प्रकाशित झाला, तसेच योगायोगाने ६ जानेवारी हा जांभेकरांचा जन्मदिवसही असल्यामुळे हा दिवस दर वर्षी महाराष्ट्रात पत्रकार दिन म्हणून साजरा होतो.                                                                                                  

     

         

अर्जुन पुरस्कार 2024

 

1. ज्योती याराजी (ॲथलेटिक्स)

2. अन्नू राणी (ॲथलेटिक्स)

3. नीतू (बॉक्सिंग)

4. स्वीटी (बॉक्सिंग)

5. वंतिका अग्रवाल (बुद्धिबळ)

६. सलीमा टेटे (हॉकी)

7. अभिषेक (हॉकी)

8. संजय (हॉकी)

९. जर्मनप्रीत सिंग (हॉकी)

१०. सुखजित सिंग (हॉकी)

11. राकेश कुमार (पॅरा तिरंदाजी)

१२. प्रीती पाल (पॅरा ॲथलेटिक्स)

13. जीवनजी दीप्ती (पॅरा ॲथलेटिक्स)

14. अजित सिंग (पॅरा ॲथलेटिक्स)

15. सचिन सर्जेराव खिलारी (पॅरा ॲथलेटिक्स)

१६. धरमबीर (पॅरा ॲथलेटिक्स)

17. प्रणव सुरमा (पॅरा ॲथलेटिक्स)

18. एच होकातो सेमा (पॅरा ॲथलेटिक्स)

19. सिमरन जी (पॅरा ॲथलेटिक्स)

20. नवदीप (पॅरा ॲथलेटिक्स)

२१. नितेश कुमार (पॅरा बॅडमिंटन)

22. तुलसीमाथी मुरुगेसन (पॅरा बॅडमिंटन)

23. नित्य श्री सुमती सिवन (पॅरा बॅडमिंटन)

24. मनीषा रामदास (पॅरा बॅडमिंटन)

२५. कपिल परमार (पॅरा ज्युदो)

२६. मोना अग्रवाल (पॅरा नेमबाजी)

२७. रुबिना फ्रान्सिस (पॅरा नेमबाजी)

28. स्वप्नील सुरेश कुसळे (शूटिंग)

29. सरबज्योत सिंग (शूटिंग)

30. अभय सिंग (स्क्वॉश)

31. साजन प्रकाश (पोहणे)

32. अमन (कुस्ती)


क्रीडा क्षेत्रातील उत्कृष्ट कामगिरीसाठी अर्जुन पुरस्कार (आजीवन)

1. सुचा सिंग (ॲथलेटिक्स)

2. मुरलीकांत राजाराम पेटकर (पॅरा-स्विमिंग)


द्रोणाचार्य पुरस्कार (नियमित श्रेणी)

1. सुभाष राणा (पॅरा-शूटिंग)

2. दीपाली देशपांडे (शूटिंग)

3.

 संदीप सांगवान (हॉकी)

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